गर्भवती के कर्त्तव्य: गर्भ संस्कार के परिपेक्ष में
गर्भवती स्त्री के लिए हिन्दू महार्षियो और संतो ने अनेक नियम व कर्त्तव्य बताते है उनमे से कुछ मुख्य नियम महर्षि पतंजलि ने विस्तार पूर्वक समझाए है. इन नियमों का पालन करने से गर्भवती को उत्तम संतान की प्राप्ति होती है. भारत में जो महान व्यक्तिव हुए है. उनके व्यक्तिव्य का निर्माण उनकी माता गर्भ में ही कर देती है. महान मानवों में उनकी महानता के बीज उनकी माता द्वारा गर्भ में ही डाल दिया जाता है, जिससे समय आने पर वही बीज एक महान वृक्ष की भाती अपने स्वरुप का दर्शन देता है. गर्भावस्था में माता का आचार विचार ही शिशु के स्वाभाव का निर्माण करता है. यही वह स्वभाविक और अति- आवश्यक क्रिया है जिसे सावधानी पूर्वक अनुभव और क्रियान्वत करना चाहिए. यहाँ गर्भवती के कर्तव्यों के कुछ मुख्य नियम विस्तार पूर्वक बताये जा रहे है.
यह नियम निम्नलिखित है.
- अहिंसा सत्यास्तेय ब्रम्हाचर्या परिग्रहा यमाः . ( योगदर्शन २\३०)
- गर्भवती को चाहिए की वह सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करे. किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न प्रदान करे.
- गर्भवती को अपने मन का भाव जैसे का तैसा ही प्रकट करना चाहिए, हितकारक प्रिय शब्दों में न अधिक न कम, निष्कपटता पूर्वक अपने भाव कहना चाहिए.
- किसी अन्य का अधिकार या वस्तु नहीं छीननी चाहिए और न ही चुराना चाहिए.
- गर्भवती को सभी प्रकार के मैथुन ( मानसिक और शारीरिक) का त्याग करना चाहिए, यही ब्रम्हचर्य है इससे शिशु में भी ब्रम्हचारी का गुण आता है.
- जितना शरीर के लिए आवश्यक हो उतना ही ले. पदार्थो का संग्रह न करे इससे शिशु में संतुष्टता के स्वाभाव का निर्माण होता है जो उसके भावी जीवन में उसे बड़ा सहायक होता है. यह शिशु के लालची और कपटी होने से उसकी रक्षा करता है.
इन महान व्रतों का पालन करने से गर्भवती स्त्री महान संतान को जन्म देती है जो देश ,समाज और परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ता है.
- शौच संतोष तपः स्वध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमाः . ( योगदर्शन २\३२)
- गर्भवती को चाहिए की वह सभी प्रकार अंदर ( मानसिक और शारीरक ) और बाहर ( त्वजा, वस्त्र, वातावरण) की स्वछता और पवित्रता का ध्यान रखे.
- जो भी भगवन इच्छा से प्राप्त हो फिर चाहे वह दुःख हो या सुख उनमे संतुष्ट रहे अर्थात यदि परिस्थिति ठीक नहीं है फिर भी धैर्य का त्याग न करे.
- मन और इन्द्रियों को संयम पूर्वक रखे, धर्म का पालन करे यही तप है इससे भावी संतान में तपोगुन की वृद्धि होगी जिससे शिशु में कर्मठता के बीज का निर्माण होगा और परिश्रम उसके स्वभाव में होगा.
- ईश्वर के नाम और गुणों का वाचन और पठन करना चाहिए. सात्विक और प्रेरणादायक और शुभ पुस्तकों का पाठ करना चाहिए.
- सभी कुछ ईश्वर पर छोड़ कर उनका ध्यान करना चाहिए अपने सभी कर्मो को ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए इससे शिशु में भक्ति का बीज पड़ता है और जिस मानव में भक्ति है वह कभी अधर्म में नहीं जा सकता. भक्ति उसे अंत में सद्गति भी दिला देती है.
इस तरह माता अपने भावी शिशु के पूर्ण जीवन का रेखा चित्र गर्भ अवस्था में ही बना देती है.
- धृतिः क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं . ( मनु. ६/९२)
- गर्भवती को सावधानी पूर्वक अपने विचारो का ध्यान व निरक्षण रखना चाहिए. भारी दुःख होने पर भी बुद्धि को विचलित नहीं होने देना चाहिए इससे शिशु में धृति का निर्माण होता है. यही बीज आगे चल कर शिशु के स्वाभाव में स्थिरता लाता है और उसके आत्मसम्मान को ऊचा बनाता है.
- गर्भवती को किसी से भी द्वेष नहीं रखना चाहिए उसे सभी को क्षमा कर देना चाहिए इससे उसके शिशु में उदारता का गुण आता है.
- बहुत ही सावधानी पूर्वक गर्भवती को अपनी बुद्धि सात्विक रखनी चाहिए. यही आचरण शिशु में “धी “ नामक शक्ति का बीज निर्माण करता है. इससे शिशु जीवन पर्यंत सात्विक आचरण का पालन करता है.
- गर्भवती को सत्य और असत्य में भेद करना चाहिए, सत्य और असत्य के पदार्थ का ज्ञान ही विद्या है. माता के इसी आचरण से शिशु में विवेक के बीज का निर्माण होता है. जो जीवन पर्यंत उसको लाभ देता है .
- गर्भवती को इन्द्रियो को वश में रखना चाहिए इसी को इन्द्रिय निग्रह कहा जाता है. इस तरह करने से शिशु में संयम के बीज का निर्माण होता है और वह भविष्य में लोभ और लालच से बचा रहता है जिससे वह जीवन पर्यंत सुख का अनुभव करता है.
- यतः प्रव्रतिर्भुतानां येन सर्वमिदं ततम्
स्वकर्मणा तमभ्यचर्य सिद्धिं विन्दति मानवः ( गीता १८/४६)
- यह श्लोक गीता का है जिसमे श्री कृष्णा अर्जुन से कहते है की हे अर्जुन ! जिस परमात्मा से सर्वभूतो की उत्पत्ति हुई है और जिससे सर्वजगत व्याप्त है उसी परमेश्वर ( श्री कृष्णा/ नारायण / शिव/ गायत्री ) को अपने स्वभाविक कर्मो द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त करता है.
- इस श्लोक में गर्भवती के लिए निर्देश है की वह स्वार्थ का त्याग करके उत्तम कर्मो का आचरण निष्काम भाव से करे. इस तरह निष्काम भाव से सदाचार का पालन करने पर शिशु में सदाचार का बीज का निर्माण होता है जिससे भविष्य में वह अहंकार से मुक्त रहता है. अहंकार ही जीवन को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है, माता द्वारा सदाचार का बीज गर्भावस्था में ही मिल जाने पर बालक सदेव अहंकार से मुक्त रहता है और जीवन में सफलता अर्जित करता है.
इस तरह गर्भ संस्कार के नियमों का पालन करते हुए माता न सिर्फ अपना बल्कि अपने शिशु का भी आत्मा का उद्धार कर देती है.